हरि किरपा जो होय तो , नाहीं होय तो नाहिं |
पै गुर किरपा दया बिन , सकल बुद्धि बहि जाहिं ||
राम तजूं पै गुरु न बिसारूँ ,
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ |
वाणी : सहजोबाई जी
भाव : यहाँ सहजोबाई जी हमें गुरु की महिमा के बारे में समझा रही हैं कि अगर प्रभु की कृपा हो तो
बहुत अच्छी बात है , नहीं भी होती तो भी कोई बात नहीं परन्तु यदि गुरु कृपा न हुई तो हम
बुद्धि रुपी अन्धकार यानि अपराविद्या में ही लगे रहेंगे और पराविद्या की ओर नहीं जायेंगे |
यदि किसी गुरु की छत्रछाया में हम नहीं पहुँचते तो हमारी जिंदगी व्यर्थ हो जाती है |
वे कहतीं हैं राम यानि परमात्मा को तो मैं छोड़ सकती हुईं लेकिन मैं अपने गुरु को कभी भी
नहीं भूल सकती तथा गुरु और परमात्मा यदि साथ – साथ खड़े हों तो मैं गुरु की ही ओर देखती
रहूंगी परमात्मा की ओर बिलकुल नहीं देखूंगी क्योंकि प्रभु की प्राप्ति केवल गुरु द्वारा ही संभव है |
गुरु ही हमारे ध्यान को प्रभु की ज्योति और श्रुति से जोड़ते हैं
संत कबीर दास जी भी कहते हैं :-
हरि रूठे को ठौर है , गुरु रूठे नाहीं ठौर |
सहजो जीवत सब सगे, मुए निकट नहिं जायं,
रोवैं स्वारथ आपने, सुपने देख डरायं।
जैसे संडसी लोह की, छिन पानी छिन आग,
ऐसे दुख सुख जगत के, सहजो तू मत पाग।
दरद बटाए नहिं सकै, मुए न चालैं साथ,
सहजो क्योंकर आपने, सब नाते बरबाद।
जग देखत तुम जाओगे, तुम देखत जग जाय,
सहजो याही रीति है, मत कर सोच उपाय।
प्रेम दीवाने जो भए, मन भयो चकनाचूर,
छकें रहैं घूमत रहैं, सहजो देखि हजूर।
सहजो नन्हा हूजिए, गुरु के वचन सम्हार,
अभिमानी नाहर बड़ो, भरमत फिरत उजाड़।
बड़ा न जाने पाइहे, साहिब के दरबार,
द्वारे ही सूं लागिहै, सहजो मोटी मार।
साहन कूं तो भय घना, सहजो निर्भय रंक,
कुंजर के पग बेड़ियां, चींटी फिरै निसंक।
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